चिकित्सा के क्षेत्र में निरंतर उन्नति हो रही है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान तिथि तक, प्रत्येक युग का प्रारंभ ऐतिहासिक पूर्ववृत्त से हुआ है, जिसकी भूमिका, यह समझने में महत्वपूर्ण हैं कि चिकित्सा क्षेत्र में कैसे प्रगति हुई है। उपचार के उन्नत विकल्प की आवश्यकताओं ने अलग-अलग कालावधि में दुनिया भर में विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की खोज की है। चिकित्सा की हर प्रणाली का अपना एक इतिहास रहा है। होम्योपैथी का इतिहास 18 वीं शताब्दी से आरंभ हुआ जब सन् 1796 में एक जर्मन फिजिशियन डॉ सैमुएल हैनीमेन (1755-1843) ने सिनकोना की छाल से समरूपता नियम की खोज की। सकारात्मक परिणामों के साथ वैज्ञानिक प्रमाणों और लोगों में व्यापक स्वीकार्यता होने के कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन ने होम्योपैथी को दुनिया में चिकित्सा की दूसरी बड़ी प्रणाली घोषित किया है। फिर भी, प्रणाली में कई अनन्वेषित क्षेत्र हैं जो सक्रिय शोध एवम् विकास के माध्यम से भविष्य में अध्ययन के लिए वांछनीय हैं।

भारत में होम्योपैथी का इतिहास

“होम्योपैथी” की नई अवधारणाएं, चिकित्सा जगत में उपचार की एक नई विचारधारा के साथ साथ एक निश्चित सिद्धांत और विशिष्ट तत्व होने का दावा कर रही थीं। जॉन मार्टिन होनिगबर्गर (1795-1869) के प्रयास से नव परिकल्पित औषधीय प्रणाली ने सन् 1839 में भारत में प्रवेश किया जो पंजाब के राजशाही चिकित्सक थे। इन्होंने उस समय कई चिकित्सकों द्वारा असाध्य घोषित महाराजा रणजीत सिंह की बीमारी का उपचार किया था। जॉन मार्टिन होनिगबर्गर की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ती गई और अंततः उन्हें “कॉलेरा डॉक्टर” का उपनाम दिया गया क्योंकि वे होम्योपैथी के माध्यम से उस समय के सबसे घातक महामारी में से एक, कॉलेरा का सफलतापूर्वक इलाज करने में सक्षम थे।

19 वीं शताब्दी के मध्य में जब होम्योपैथी, लोकप्रियता प्राप्त कर रही थी, एक जमींदार, बाबू राजेंद्र लाल दत्ता (1818-1889) होम्योपैथी का समर्थन करने के लिए आगे आए और होम्योपैथिक अस्पताल और मुक्त औषधालय की स्थापना की और बाद में वे भारतीय होम्योपैथी के पिता के रूप में जाने गए। थिएन्नेत्ते बेरिग्नि, प्रसिद्ध फ्रांसीसी होम्योपैथ चिकित्सक, सन् 1864 की प्रारम्भ में कलकत्ता आये और बाबू राजेंद्र लाल दत्ता के साथ मिलकर बंगाल में होम्योपैथी पद्धति के इलाज का प्रचार किया। विएना के एक और महान चिकित्सक, एल.सालज़ार कलकत्ता आए और भारत में होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति के विस्तार के लिए अनायास कार्य कियें।

16 फरवरी 1867, भारत में होम्योपैथी के इतिहास में एक यादगार दिन रहा। उस दिन महेंद्र लाल सरकार (1833-1904), जो की एक महान एलोपैथिक चिकित्सक, कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से द्वितीय एम.डी. डिग्री धारक, एक समाज सुधारक और उन्नीसवीं सदी के भारत में वैज्ञानिक अध्ययन के प्रचारक थें, उन्होंने ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन की बंगाल शाखा की एक बैठक में होम्योपैथी को पश्चिमी चिकित्सा से बेहतर घोषित किया। वे विलियम मॉर्गन के “होम्योपैथी के दर्शन” को पढ़कर प्रभावित हुए थे और वे पहले भारतीय थे जिन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में संस्थागत प्रशिक्षण लेने के उपरांत होम्योपैथी प्रणाली को अपनाया और कलकत्ता के साथ-साथ भारत में भी एक प्रमुख होम्योपैथी चिकित्सक बन गयें। उन्होंने सन् 1868 में एशिया के पहले होम्योपैथिक पत्रिका, ‘द कलकत्ता जर्नल ऑफ मेडिसिन’ को प्रकाशित किया। सन् 1881 में उस समय के प्रसिद्ध चिकित्सकों में शामिल डॉ. मुजुमदार और डॉ. डी. एन. रॉय ने कोलकाता (तब कलकत्ता) पश्चिम बंगाल में पहले होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज ‘कलकत्ता होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज’ की स्थापना की। डॉ. लाहिरी, डॉ. बी. के. सरकार और कई अन्य लोगों ने होम्योपैथी को एक पेशे के रूप में स्थापित करने के लिए व्यक्तिगत प्रयास किए। उनके संयोजन से न केवल बंगाल में बल्कि पूरे देश में होम्योपैथी को बढ़ावा मिला।

फादर मुल्लर (1841-1910) जो श्री ऑगस्टस मुल्लर, डॉ.सैमुअल हैनिमैन के स्कूल शिक्षक, के पौत्र थे, ने दक्षिण भारत में होम्योपैथी के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने एक धर्मार्थ औषधालय शुरू किया जो अंतत: सन् 1880 में कांकेनाडी पहाड़ी, मैंगलोर में एक मेडिकल कॉलेज के रूप में विकसित हुआ।